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संस्कृति और सभ्यता बदलते हुए परिपेक्ष्य

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"संस्कृति और सभ्यता बदलते हुए परिपेक्ष्य"

हिन्दी राइटर्स गिल्ड 8 सितंबर, 2013 - हिन्दी राइटर्स गिल्ड (कैनेडा ) द्वारा "संस्कृति और सभ्यता बदलते हुए परिपेक्ष्य" इस विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन आठ सितंबर रविवार के दिन ब्रैम्पटन लाईब्रेरी (सेन्ट्रल) में सफलता पूर्वक किया गया । इस गोष्ठी मे भाग लेने कैनेडा के दिग्गज व हिन्दी साहित्य से जुड़ी कई हस्तियों से उत्साह से भाग लिया ।
गोष्ठी का आरंभ श्रीमती धारा वासनय जी ने मधुर स्वर में सरस्वती वंदना गायन से किया । सभा मे उपस्थित सभी लोगों ने भी इसमें हिस्सा लिया । उन्होंने सभी को गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें भी दीं।
इस संगोष्ठी के संचालन कर्ता सुमन घई जी ने भारतीय संस्कृति – सभ्यता को कैनेडा में कायम रखने और अपने मूल्यों को बनाए रखने का निवेदन किया ।
पहली वक्ता सुश्री सविता अग्रवाल ‘सवि’ जी ने सुंदर शब्दों में सभी को सभ्यता और संस्कृति का अर्थ बताया । सभ्य वह कहलाता है जो समाज के दायरे में रहकर आचरण करता है और सभी के साथ मिलजुलकर, सभी की भलाई के लिए काम करता है। भारतीय संस्कृति समन्वय की संस्कृति है, लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत है।
दूसरी वक्ता डाo इन्दु रायज़ादा जी ने हिन्दी राइटर्स गिल्ड का आभार प्रकट करते हुये अपना पेपर पढ़ा। सभ्यता और संस्कृति के बीच एक सूक्ष्म रेखा है । दोनों की प्रगति साथ-साथ होती। सभ्यता स्थूल व संस्कृति सूक्ष्म है। संस्कृति सभ्यता में ऐसे समाये हैं जैसे दूध में मक्खन । उन्होंने यह भी बताया कि सभी संस्कृतियाँ एक दूसरे से प्रभावित होती हैं और सीखती हैं । आज उपभोक्तावादी संस्कृति हावी हो रही है । मनुष्य आत्मकेंद्रित होता जा रहा है । अंत में उन्होंने कहा कि अतीत पर मुग्ध होना छोड़ कर प्रगति के पथ पर अग्रसर होना चाहिए ।
तीसरे वक्ता श्याम त्रिपाठी जी ने इसी विषय पर ‘हरीश कुमार शर्मा’ जी द्वारा लिखा लेख पढ़ा । उन्होंने कहा कि सभ्यता और संस्कृति दोनों पर्यायवाची होते हुये भी सूक्ष्म अर्थ भेद रखते हैं जैसे आत्मा और शरीर। सभ्यता अगर शरीर है तो संस्कृति उसमें निहित शरीर। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। सभ्यता उन्नति है और संस्कृति उत्तमता। संस्कृति एक - दूसरे को जोड़ती है ।
चौथी वक्ता सुश्री आशा बर्मन जी ने, हिन्दी भाषा मे आ रहे बदलाव की बहुत ही सरल व सुंदर शब्दों मे विवेचना की। १५० वर्ष पूर्व जन्मी, नई फिर भी अत्यंत समृद्ध हिन्दी भाषा की आज दीन–हीन और उपेक्षित स्थिति पर अपना दुःख प्रगट किया। अँग्रेजी का प्रभुत्व और गुलाम मानसिकता मे हिन्दी कराहती दिखती है । हिन्दी भाषा ने खुले ह्रदय से सभी भाषाओं को अपनाया, अपने में आत्मसात कर अपने आप को अधिक समृद्ध किया। परंतु आज की पीढ़ी हिन्दी के प्रति सचेत नहीं। हिन्दी बोलते समय कम से कम अँग्रेजी शब्दों के प्रयोग का आग्रह किया और अपनी वार्ता का अंत मधुर स्वर मे कविता पाठ कर के किया ।
पाँचवें वक्ता श्री० बी० एन० गोयल जी अपने जीवन के उदाहरण देते हुए संस्कृति मतलब बताया । हिंगलिश के बढ़ते प्रचार – प्रसार की बात की । मीडिया द्वारा भाषा के गिरते स्तर और ईमेल ने भाषा में विकृति पैदा की , यह बात की । भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण है
, सबको आत्मसात करती है ....
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहां से।
अब तक मगर है बाक़ी नामों-निशां हमारा।।
कुछ बात है कि हस्तीन मिटती नहीं हमारी।
सातवीं वक्ता सुश्री पूनम कासलीवाल ने – आज के बदलते रिश्तों, कारण और उसके निवारण की बात की। संयम, सहनशीलता, स्नेह और समर्पण की भावना किसी रिश्ते को मधुर और सबल बनाती है। मजबूत रिश्ता विरासत मे नहीं मिलता , बनाना पढ़ता है । कर्म किए जा फल की इच्छा वाला भाव अगर मन में लाए तो आप सुखी रह सकते हैं । सरल, सहज शब्दों में उन्होनें अपनी बात कही।
आठवें वक्ता श्री विद्याधर भूषण जी ने बहुत ही रोचक तरीके से अपना लेख पढ़ा । अपने आई फोन पर भगवान और भक्त की चैट के रूप में आज की बदलती स्थिति, ईश्वर प्राप्ति का मार्ग और मोक्ष प्राप्ति के साधन बताए ।
नौवें वक्ता श्री विजय विक्रांत जी ने सयुंक्त परिवार के विघटन, उसके बिखराव के कारण पर दुःख प्रगट किया। रोजगार की आकांक्षा, सहनशक्ति की कमी के कारण , आज सयुंक्त परिवार टूट रहे हैं। एकल परिवार की त्रासदी भी गिनवाईं । पर अब फिर से परिवार मिल–जुल कर रहने लगेंगे यह असंभव सी बात लगती है ।
दसवीं तथा अंतिम वक्ता रहीं डा० शैलेजा सक्सेना, उनके अनुसार बदलाव कोई गलत बात नहीं और अब हम सभी किसी एक देश के नागरिक न हो कर ग्लोबल नागरिक व कोरप्रेट नागरिक हैं । सभी भाषा, रंग के लोग आपस में जुड़ कर इंद्र्धानुषीय छटा बिखेर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर हम करीब आ रहे हैं पर अकेलापन बढ़ रहा है । पीछे छूट जाने का डर नए अवसाद पैदा कर रहा है । मानवीय संवेदना शून्य हो रही हैं ।
अंत में भारतेन्दु जी ने चंद शब्दों में , भारतीय संस्कृति की विहंगमता पर संकेत करते हुये वसुधैवकुटुकंबम की नीति अपना कर ही भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखा जा सकता है अपने विचार प्रस्तुत किए ।

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