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विश्व हिन्दी शिक्षण विमर्श

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विश्‍व हिंदी शिक्षण विमर्श - 1 ‘ हिंदी शिक्षण के विविध आयाम और वर्तमान संदर्भ’

विश्‍व हिंदी सचिवालय और वैश्विक हिंदी परिवार
हिंदी शिक्षण के विविध आयाम और वर्तमान संदर्भ
रविवार 5 जुलाई 2020
वैश्विक हिंदी परिवार द्वारा उपरोक्त विषय पर पुन: एक महत्वपूर्ण वेबिनार का आयोजन किया गया। इनमें मुख्य वक्ता के रूप में दो अत्यंत प्रतिष्ठित विद्वानों को आमंत्रित किया गया। प्रो. वी. आर. जगन्नाथन (प्रख्यात विद्वान एवं भाषा वैज्ञानिक) तथा प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय (निदेशक, केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा)। इस कार्यक्रम का संचालन डॉ. संध्या सिंह (सिंगापुर) ने किया।
डॉ. संध्या सिंह ने कार्यक्रम का आरम्भ करते हुए अतिथि विद्वानों का स्वागत करते हुए उनका संक्षिप्त परिचय दिया और इस संगोष्ठी का विषय प्रवर्तन करने के लिए मौरिशस से डॉ. गुलशन सुखलाल जी को आमंत्रित किया।
गुलशन जी ने विषय को स्पष्ट करते हुए कहा कि वैश्विक हिंदी परिवार के उद्देश्यों के अनुसार ही आज की यह बैठक तय हुई है।
1. उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य, भाषा, तकनीकी कई मुद्दे हैं लेकिन हिंदी शिक्षण का मुद्दा अन्य मुद्दों से अधिक जटिल, संवेदनशील और बहुआयामी है। जहाँ एक कक्षा में ३० अलग विद्यार्थियों की आवश्यकता और माँग की इतनी कठिनाइयाँ हैं, वहीं जब वैश्विक हिंदी शिक्षण के स्तर पर बात होगी तो इसके कितने स्तर और सतहें होंगी इसकी कल्पना भी कठिन है। अलग-अलग देशों की अलग परिस्थितियों, अलग इतिहास, अलग समाज, अलग भाषाविज्ञान आदि कितने ही अलग क्षेत्र होंगे। वैश्विक हिंदी परिवार ने अपने पहले उपक्रम में अलग-अलग देशों के तमाम उन लोगों को एक साथ लाने की कोशिश की है जो ज़मीन से जुड़े हैं, वास्तविक कार्य कर रहे हैं। ये कड़ी भी आगे जारी रहेगी। यहाँ क्षेत्र-विशेष की व्यक्तिगत समस्याओं और सुझावों का अवलोकन होगा।
2. इसी का दूसरा आयाम है जो हर क्षेत्र को छुएगा और और उसका सम्बन्ध पॉलिसी से, सरकारी तंत्र, संस्थानों की नीतियों से होगा। विश्‍व हिंदी शिक्षण की जो वैश्विक ज़रूरतें हैं, माँगें हैं, आयाम हैं, समस्याएँ हैं उन्हें इस मंच से देखा जाएगा। इसके बाद डॉ. जगन्नाथन को वक्तव्य के लिए आमंत्रित किया।
जगन्नाथन जी ने अपने वक्तव्य को आरम्भ करते हुए कहा कि आज एक विश्‍व मंच पर अपने विचार साझा करते हुए वे अत्यंत प्रसन्न हैं। उन्होंने कहा कि भाषा शिक्षण के कुछ आयाम हैं। उनके विचारों के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं —
1. पहला आयाम - वस्तु (पाठ्य सामग्री), शिक्षक एवं विधि का संदर्भ और इन तीनों के केंद्र में विद्यार्थी है। यह एक त्रिकोण है।
2. दूसरा आयाम है भाषिक पृष्ठभूमि यानी एक भाषा के मातृभाषा, अन्य भाषा, विदेशी भाषा के रूपों की बात हम करते हैं लेकिन इसके अतिरिक्त भी तीन संदर्भ हैं - विरासत की भाषा, सगोत्रीय भाषा, और सम्पर्क भाषा। हिंदी पूरे भारत के लिए सम्पर्क भाषा की भूमिका का निर्वाह कर रही है।
3. तीसरा आयाम है भाषा शिक्षण के ऐतिहासिक क्रम का। इसमें सबसे पहले है व्याकरण, अनुवाद विधि, फिर प्रत्यक्ष विधि तथा संरचनात्मक विधि। इनमें ३ तरह के विषय जुड़े हुए हैं। मनोविज्ञान का व्यवहारवाद, भाषा विज्ञान का संरचनात्मक भाषा विज्ञान और दर्शन का प्रत्यक्षवाद। उन्होंने कहा कि आज हम विधि के सन्दर्भ में विधिहीन हैं। लेकिन चोमस्की ने कुछ सन्दर्भ या सम्पर्क दिया है जैसे संज्ञानात्मक भाषा विज्ञान को लेकर (कोग्निटिव सायकॉलोजी) और उन्होंने व्यवहारवाद से अधिक उपयोगी मनोवाद को माना है। आज हम संज्ञान को लेकर भाषा शिक्षण की बात करते हैं लेकिन इसकी कोई विधि नहीं बनी। इस संदर्भ में ३-४ उपागमों की बात हुई है जैसे क्रैशन का स्वाभाविक भाषा अर्जन, सज्जेस्टोपिडिया है, इमर्ज़न मेथड है, (जिसे भारत में निमज्जन विधि के नाम से जाना जाता है)। ये सब विधियाँ ये दावा करती हैं कि भाषा को सिखाना नहीं चाहिए बल्कि सीखने वाले को अपने आप भाषा अर्जित करने देना चाहिए।
4. चौथा आयाम है प्रौद्योगिकी के साथ क़दम ताल। इसे उन्होंने CALL (कम्प्यूटर एडेड लैंग्विज लर्निंग) से ले कर MALL (मोबाइल एडेड लैंग्विज लर्निंग) तक की संज्ञा दी। शिक्षण क्षेत्र में भी एक ऐतिहासिक क्रम है। सबसे आदिम प्रौद्योगिकी है सचित्र पाठ्यपुस्तकें। फिर बैंकिंग हिंदी, प्रयोजनमूलक हिंदी आदि।
5. पाँचवाँ आयाम है भाषा सीखने के प्रयोजन का (व्यवहार से विद्वत्ता तक)
6. छठे आयाम के संदर्भ में उचित, उपयुक्त सामग्री के उपयोग की बात आती है और यहाँ पर भाषा बनाम साहित्य की बात आती है। उन्होंने कहा कि ये विवाद सदा रहा कि भाषा को भाषा के लिए पढ़ाना चाहिए या साहित्य के लिए। उनका मत है कि भाषिक तत्वों का ज्ञान हमारा प्रारम्भिक उद्देश्य होना चाहिए और फिर साहित्य पढ़ने की बात आनी चाहिए।
इन आयामों की चर्चा के बाद उन्होंने कुछ अन्य अन्य मुद्दों की बात की -
भाषा की मानकता का सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि कम्प्यूटर युग में मानक भाषा का प्रयोग सबसे ज़रूरी है। मानकीकरण केंद्रिकृत उद्यम है जो कोई एक संस्था कर सकती है अनेक नहीं। ये एक निरंतर और नियमित प्रक्रिया होनी चाहिए। भाषा तत्वों के मानकीकरण की भी आवश्यकता है। संकोच के साथ उन्होंने कहा आज हिंदी में कोई भी भाषिक तत्त्व मानकीकृत नहीं है, न वर्ण माला, न वर्तनी, न शब्द न संरचनाएँ। उन्होंने कहा कि मानक भाषा ग्रंथ उन्नत भाषा की पहली शर्त हैं।
उन्होंने कहा कि कोश के संदर्भ में भी आज कोई एक मानक कोश नहीं है। ४ मानक कोशों का आधार लेते हुए उन्होंने कूदना, फुदकना, लांघना, उछालना, छलांग आदि शब्दों के उदाहरण के द्वारा ये बताया कि किसी भी कोश में शब्दों की सही व्याख्या उन्हें नहीं मिली। सिर्फ़ शब्दों के पर्याय दे दिए जाते हैं। उनके अनुसार कोश बनाने की पर्यायमूलक विधि उचित नहीं।
उन्हें कामिल बुल्के के द्विभाषी कोश में भी यही कमी दिखी। इन्होंने इस संदर्भ में अपने द्वारा निर्मित ‘छात्र कोश ‘का उल्लेख किया जहाँ इन कमियों को दस आधारों पर दूर करने की उन्होंने चेष्टा की है। उन्होंने दावा किया कि इस कोश में एक भी ऐसा शब्द नहीं जो आज के हिंदी प्रयोग में ना आता हो और इसमें ऐसा शब्द नहीं छूटा है जो जन साहित्य, लोक साहित्य और मीडिया में प्रयुक्त ना होता हो। उन्होंने अपनी बात को ‘छलांग’ शब्द के विविध अर्थी प्रयोगों से स्पष्ट किया।
इसके बाद मानक व्याकरण की बात की। उन्होंने कहा कि ‘ए’ या ‘ये’ में क्या उचित है, ज़ और फ़ की हिंदी में आवश्यकता है या नहीं जैसे विषयों पर मानक तय होने चाहिए। व्याकरण में दो बिंदु - कर्मवाच्य और प्रेरणार्थक वाच्य की चर्चा उन्होंने की।
विधि की बात करने के बाद उन्होंने सिद्धांत की बात की। सिद्धांत सर्वमान्य रूप से अपनाए जा सकते हैं। इसे उन्होंने १६ सिद्धांत या १६ संस्कार कहा।
१-धैर्य,
२-सहजप्रक्रिया,
३-सीखने में देरी भी हो सकती है बालकों को, लेकिन जल्द ही वे दूसरों के बराबर पहुँच जाते हैं
४-सहिष्णुता का दायरा,
५-सरल से कठिन, (कक्षा में लर्नर टॉक नहीं करना चाहिए)
६-सम अनुभूति (एम्पैथी) हम अपनी सुविधा से भाषा को नहीं बदल सकते),
७-भाषा अधिगम आजीवन क्रिया है और अधिगम की प्रकृति को भी जानना ज़रूरी है, (यही मौखिक अभ्यास का क्रम है)
८-सांस्कृतिक शॉक के लिए भी तैयार रहना चाहिए (ये शॉक कभी-कभी मानकीकरण विरोधी भी होते हैं)
९-मौखिक भाषा पहले सिखानी चाहिए और फिर लिपि से उसे जोड़ें।
१०-ज्ञान अर्जित करना ज़्यादा ज़रूरी है छात्रों का विश्वास जीतने के लिए
११-बहुविद् अध्यापक, एकविद् पाठ्यक्रम
१२-संरचना पहले, संवर्धन बाद में
१३-बोलने में क़तई संकोच ना करें, छात्रों तक ये बात सम्प्रेषित करें
१४-भाषा अर्जन सार्थक क्रिया होनी चाहिए, उपयोगी होनी चाहिए
१५- जो आपने नहीं सुना उसका उच्चारण नहीं कर सकते। जो नहीं समझ सकते, नहीं बोल सकते
१६- आत्मीकरण की प्रक्रिया जटिल है (इंटर्नलाईजेशन), इसके लिए उपयुक्त सामग्री और तकनीक की आवश्यकता है
सार रूप में उन्होंने कहा कि अध्येयता कम समय में अच्छा भाषा ज्ञान चाहता है। इसके लिए छात्रों को हमें निजीकरण उपलब्ध करवाना होगा। विश्‍व के किसी भी कोने में विद्यार्थी तक सामग्री पहुँचा सकें, कौशलों का विकास कर सकें। विद्यार्थी की भाषा सीखने की प्रयोजनपरकता को भी ध्यान में रखना होगा। भाषा के सृजनात्मक प्रयोग की ओर विद्यार्थी को ले जाना होगा।
शासनतंत्र और शिक्षातंत्र दोनों के तालमेल से ये सम्भव होगा। और एक शिक्षक को युगीन संदर्भ से जोड़ कर अपनी बात छात्र को बतानी होगी। आज के संदर्भ में दूर शिक्षा और नेट शिक्षा और मानक पाठ्यक्रम के लिए सामग्री बनाने और काम करने की ज़रूरत है। उन्होंने अंत में कहा कि संचयात्मक और संगठनात्मक दृष्टि से किए गए काम को आगे बढ़ाने की आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
डॉ. संध्या ने उपयोगी ज्ञान के लिए डॉक्टर जगन्नाथन का हार्दिक धन्यवाद देते हुए डॉ. नंदकिशोर पांडेय जी को उनके वक्तव्य के लिए आमंत्रित किया।
डॉ. पांडेय ने विश्‍व हिंदी सचिवालय व वैश्विक हिंदी परिवार के इस आयोजन को बधाई देते हुए अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उनके विचार बिंदु इस प्रकार हैं —
1. केंद्रीय हिंदी संस्थान ने अब तक ९४ देशों के ६ हज़ार से अधिक विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाई है। प्रो. राजगोपालन जी, प्रो. सतीश कुमार रोहरा, प्रो. रमानाथ सहाय, प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव और अनेकानेक कार्यरत एवं सेवानिवृत लोगों का संस्थान के प्रति योगदान बहुमूल्य है। आज विश्‍व भर में अनेक विद्यार्थी हिंदी बोलते पढ़ते हैं, वो शिक्षा इसी संस्थान से उन्हें प्राप्त हुई है। इस कार्य के आरम्भ में अनेक चुनौतियाँ रही होंगी, अनेक बाधाएँ भी आयी होंगी। विदेश में हिंदी पढ़ाना और देश में विदेशी विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाने की अलग-अलग समस्याएँ हैं।
2. यह गर्व की बात है कि पहली भाषा प्रयोगशाला भारत में केंद्रीय हिंदी संस्थान में बनी। विदेशियों को हिंदी सिखाने के बहुत सारे प्रयोग किए गए। १९७२ में पहला बैच आया और १९९२ से आगरा और दिल्ली केंद्रों में विदेशी विद्यार्थियों को पढ़ाया जा रहा था। पिछले सत्र में ४२ देशों के विद्यार्थी थे। केंद्रीय हिंदी संस्थान की कक्षा में २८ देशों के विद्यार्थी बैठते हैं और उनके शिक्षण में शुद्धतावादी सिद्धांत की बात नहीं होती।
3. प्रयोग कई तरह से किए गए। अधिकांश देशों के विद्यार्थी अंग्रेज़ी भी नहीं जानते। जैसे एक प्रयोग किया गया - पहले ही दिन विद्यार्थियों को ‘चाहिए’ शब्द सिखा /याद करवा दिया गया। वह दुकान में जाकर ब्रश, दूध, खाना चाहिए कहकर अपना काम चला सकता है। यह प्रयोग किसी पुस्तक में लिखित नहीं है, बस एक प्राथमिक शुरुआत है। सुनना और बोलना को मुख्य कौशल कहा गया और पढ़ना और लिखना गौण कौशल माने गये । एक दो वर्षीय बच्चा केवल सुनता है, व्याकरण नहीं जानता।
4. एक विदेशी विद्यार्थी अपने आवास काल में हिंदी और अहिंदी भाषी अनेक लोगों से बात करता है और वहाँ शुद्धता से ज़्यादा सम्प्रेषण महत्वपूर्ण होता है। भाषा सीखते हुए भाव का ग्रहण और प्रकाशन होना चाहिए और इसके लिए आम तौर पर लिपि, उच्चारण, व्याकरण और संरचना का उपयोग किया जाता है किंतु भारत में जो विदेशी विद्यार्थी आता है उसकी रुचि भाषा के साथ भारतीय संस्कृति और समाज को जानने की भी होती है। इसके लिए संस्कृति मूलक अतिरिक्त कक्षाओं का प्रावधान किया गया है। संगीत, नृत्य, वाद्य यंत्रों आदि की शिक्षा दी जाती है। इसमें व्यावहारिक शिक्षा और ज्ञान है - जैसे ज्योतिष, आयुर्वेद, भारत के अन्य राज्यों की जानकारी आदि। यानी पूरा माहौल हिंदी का बना दिया जाता है। विद्यार्थी एक वर्ष में लिखना-पढ़ना सीख कर परीक्षा उत्तीर्ण करने योग्य बन जाता है और ये संस्थान के प्राध्यापकों के अनथक परिश्रम का प्रमाण है।
5. संस्थान में अध्यापकों ने शिक्षक सहगामी क्रियाओं को प्रारम्भ किया। विदेशों में हिंदी पढ़ने के लिए १९७२ से २०१८ तक संस्थान से ५९ शिक्षक विदेशों में पढ़ा चुके हैं। विदेशों में सम्पर्क, संस्कृति परिचय, शैक्षणिक भ्रमण, काव्य पाठ (कविता को सस्वर सुनाना), त्योहारों का परिचय देना व लेना, कथा-कथन, आदि प्रारम्भिक भाषा वाचन के सहायक बनते हैं। भाषा संशोधन का कार्य इसके बाद आता है।
6. फिर भी विद्यार्थी के सामने अनेक समस्याएँ रहती हैं तो उनसे ‘देखो’ और ‘कहो’ का अभ्यास करवाया जाता है, क्रिया की शृंखला का अभ्यास, कहानी कथन, कविता पाठ, अंत्याक्षरी आदि। अगले स्तर पर वाद-विवाद, अनुभव-कथन, व्याख्यान आदि आते हैं। इन चरणों को अहिंदीभाषी भारतीय या विदेशी विद्यार्थियों को हिंदी सिखाने के लिए पूर्ण करना ही होगा।
7. संरचना का अभ्यास एक निश्चित प्रशिक्षण के बाद ही आरम्भ कर सकते हैं। वाक्य की सरंचना, शब्द का रूपांतरण, संवाद, प्रतिवेदन का अभ्यास होता है। संयुक्त क्रियाओं का अभ्यास करवाना विदेशी विद्यार्थियों के लिए, कठिन कार्य है। चलना, दौड़ना, गिरना, उठना जैसी क्रियाओं का बोध करवाने के लिए शिक्षक को कठिन मानसिक अभ्यास से गुज़रना पड़ता है। धैर्य की, और आनंद की अनुभूति आवश्यक है शिक्षक के लिए।
8. एक महत्वपूर्ण बात उदारता के साथ हिंदी के मानकीकरण की प्रक्रिया की है। लिखित हिंदी में मानकीकरण की समस्या है किंतु ‘भाषा बहता नीर’ की भावना को समझने की भी ज़रूरत है। मानकीकृत शब्दावली ९ लाख के आसपास उपलब्ध हैं, लेकिन इस शब्दावली को स्वीकार करने में बाधाएँ हैं जिस पर विश्‍व के अनेक विद्वान काम कर रहे हैं। भाषा का स्थिर और मानक रूप तो प्रस्तुत होना ही चाहिए।
अपनी बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि आज हिंदी शिक्षण के आयाम और स्तर खुले हैं, पाठ प्रक्रिया पर भी विचार हुआ है और हम शिक्षण को धीरज से स्वतः उन्नत भी कर सकते हैं। देश और परिस्थितियों के अनुसार शिक्षक जो भी प्रक्रिया विकसित करता है, वह उसके लिए लाभदायी होती है। प्रारम्भिक दिनों में शिक्षक को अपने अनुभव से जूझना पड़ता है और बनायी गयी पुस्तकें उसके बाद काम में आती हैं।
डॉ. संध्या ने डॉ. शैलजा सक्सेना को धन्यवाद ज्ञापन के लिए आमंत्रित किया। संध्या जी को उनके कुशल संचालन के लिए बधाई देते हुए दोनों विद्वान वक्ताओं को उनकी सुंदर जानकारी के लिए आभार और धन्यवाद ज्ञापित किया। साथ ही गुलशन जी, जवाहर जी, मोहन बहुगुणा जी और समस्त श्रोताओं को भी धन्यवाद प्रेषित किया।
अमिषा अनेजा
प्रवक्ता
लेडी श्रीराम कॉलेज, भारत

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